Sunday, March 13, 2011

शहर ने दिया उत्तर भारत को पहला सिनेमा ....

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शहर ने दिया उत्तर भारत को पहला सिनेमा ....



उत्तर भारत में औद्योगिक शुरुआत के साथ-साथ व्यवस्थित सिनेमा का श्रीगणेश भी कानपुर से ही हुआ था। कोलकाता की एक कंपनी चवरिया टाकीज प्राइवेट लिमिटेड ने यहां 1929 में पहला सिनेमाघर बैकुंठ टाकीज की स्थापना की। 1930 में इसे पंचम सिंह ने खरीद लिया और नाम बदलकर कैपिटल टाकीज कर दिया। चूंकि पूरा सिनेमाघर टिन के नीचे था, इसलिए इसको भड़भडि़या टाकीज भी कहते थे। क्राइस्टचर्च कालेज के इतिहास विभाग के एचओडी प्रो. एसपी सिंह कहते हैं कि 1930-40 का दशक कानपुर के सिनेमा का स्वर्णिम युग था। यहां 1936 में मंजुश्री (प्रसाद बजाज) जो आज भी स्टेशन के पास चल रहा है, 1936-37 में शीशमहल, जहां अब शापिंग काम्प्लेक्स है की स्थापना हुई। 1946 में गुमटी नंबर पांच रेलवे लाइन के किनारे जयहिंद टाकीज बनी। यह अब व्यवसायिक मार्केट में बदल गया। इसी साल न्यू बसंत (जवाहर लाल जैन) व शालीमार (लाला कामता प्रसाद) सिनेमाघर बने। ये दोनो बंद हो चुके हैं। 1940-41 में इंपीरियल सिनेमाघर बना था। इसमें भी ताला पड़ गया है। सबसे पहले 1920 में अंग्रेजों ने अपने लिए कुछ सिनेमाघर बनाये थे। इनमें से कुछ बंद हो गये तो कुछ कालांतर में भारतीयों के हाथ बिक गये। उदाहरण के लिए अंग्रेजों ने एस्टर व प्लाजा टाकीजें बनाईं थी जिसका बाद में नाम क्रमश: मिनर्वा तथा सुंदर पड़ा। बाद में शालीमार का नाम डिलाइट हो गया। टाकीज को सुंदर सुव्यवस्थित बनाने की शुरुआत दादा साहेब फाल्के पुरस्कार विजेता सूरज नारायण गुप्ता ने नारायण टाकीज बनाकर की। नारायण एअर कूलिंग, प्लास्टर ऑफ पेरिस जड़ी दीवारों सहित दूसरी तकनीक से युक्त थी। 70 80 के दशक में सिनेमाघर भव्य होने लगे। हीर पैलेस, सत्यम, अनुपम, संगीत, गुरुदेव, संगम, पम्मी, इम्पीरियल आदि इसी श्रेणी की टाकीजें हैं। बाद में नारायण, अनुपम, नटराज, न्यूबंसत व नटराज एक साथ बंद हुए। इनके भवनों का उपयोग दूसरे कामों में हो रहा है। सबसे पहले देखी आलमआरा कानपुर में सबसे पहली फिल्म आलमआरा दिखायी गयी। पहली टेक्नीकलर फिल्म झांसी की रानी दिखायी गयी। सबसे लंबी फिल्म जो दिखायी गयी वह हातिमताई थी। 1933 में कैपिटल में लगी यह फिल्म 52 रीलों की थी। दस घंटे की यह फिल्म शाम 6 बजे शुरू होकर सुबह 4 बजे समाप्त होती थी। चार इंटरवल होते थे। जब छपा टिकट या पास नहीं था तो हाथ पर मुहर लगाकर लोगों को टाकीज में जाने की अनुमति मिलती थी। पहले सिनेमाघरों ने अपनी-अपनी पसंद वाले विषयों की फिल्में चुन रखीं थी। रीगल हमेशा अंग्रेजी, कैपिटल मारधाड़, मंजुश्री धार्मिक, विवेक ऐतिहासिक व सुंदर पारिवारिक फिल्में दिखाता था। रिकार्ड बने कानपुर में सबसे पहले मदर इंडिया ने (सुंदर टाकीज 25 हफ्ते) सिल्वर जुबली मनायी। सबसे अधिक चलने वाली फिल्म शोले (75 हफ्ते, संुदर टाकीज) रही। मुगले आजम (60 हफ्ते विवेक टाकीज), गंगा यमुना (50 हफ्ते, सुंदर टाकीज) ने रिकार्ड बनाया। काजल, गाइड, पालकी, मेरे महबूब, दिल लिया, राम श्याम, सावन भादौं आदि फिल्में एक ही टाकीज में 25 हफ्ते तक चलीं।

Posted By KanpurpatrikaSunday, March 13, 2011

कानपुर में चली गोली, बरसी लाठियां ....

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कानपुर में चली गोली, बरसी लाठियां ....

भारत छोड़ो आंदोलन को अपनी आंखों से देखने वाले शहर में अब चंद लोग ही बचे हैं। आज भी जब यह उन लम्हों को याद करते हैं तो गौरव की अनुभूति करते हुए अतीत में खो जाते हैं। ऐसे ही एक वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं भगवंतनगर विधानसभा क्षेत्र (उन्नाव) से पूर्व विधायक भगवती सिंह विशारद। कानपुर के धनकुट्टी इलाके में किराये के मकान में रहने वाले श्री विशारद का जन्म 30 सितंबर 1921 में हुआ था। भारत छोड़ो आंदोलन को लेकर विशारदजी ने बताया कि धनकुट्टी से जनसैलाब जुलूस की शक्ल में आगे बढ़ा। इसके बाद जुलूस मूलगंज चौराहे, मेस्टन रोड होते हुए बड़ा चौराहा पहुंचा। मालरोड पर अंग्रेज पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठी बरसायी। फायरिंग भी हुई जिसमें कई लोग घायल हुए। घर में घायलों का इलाज हुआ। विशारद जी बताते हैं कि डिप्टी पड़ाव के बीके सिंह, जगदीश दुबे बम बना लेते थे। यहां धनकुट्टी में इसके लिए एक कमरा ले रखा था। बम बनाने में जिस रसायन का प्रयोग होता था उससे पीला पानी निकलता था जो बाहर नाली में बहता था। पुलिस को शक न हो, इसलिए बमों को सुरक्षित रखने के लिए नौघड़ा में किराये का मकान लिया गया था। रामचंद्र नाम का एक आदमी बम लेने के लिए आता था। यह बम कनस्तर में रखा जाता था। इसे छिपाने के लिए ऊपर से खाद्य पदार्थ डाल दिया जाता था। उन्होंने कहा कि भारत छोड़ो आंदोलन में शहर से हजारों गिरफ्तारियां दी गयी। जिला जेल भर गयी थी। टेंट लगाकर सत्याग्रहियों को रखा गया। कई लोगों को बस्ती व अन्य जिलों की जेल में भेजा गया था। जेल में लोग सुबह राष्ट्रीय ध्वज की वंदना करते थे। जिससे अंग्रेज जेलर खफा होता था। विशारद जी ने बताया उनको एक साल की सजा हुई थी जबकि दस रुपये का जुर्माना लगा था।

ये लेख कानपुर डाट बुसी डाट इन से लिया गया है

http://kanpur.busi.in/category/From-History-Of-Kanpur.aspx

Posted By KanpurpatrikaSunday, March 13, 2011

लाल कानपुर लाल हुआ, सन सत्तावन की होली में,

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लाल कानपुर लाल हुआ, सन सत्तावन की होली में,

जिला कानपुर जिला रहा है,जाने कितनी जानों को ।
पीस नहीं सकती चक्की, लोहे के बने किसानों को ।।
राज विदेशी से टकराया, नाना नर मरदाना था ।
चतुर अजीमुल्ला को अपनी चतुराई अजमाना था ॥
यहीं लक्ष्मी नाम ‘छबीली’ रखकर छवि दिखलाती थी।
यहीं तांतिया के कर में तलवार नित्य इठलाती थी॥
हो रही सुबह जिनके बल पर फूटा उस दिन उजियाला था।
कम्पनी हुकूमत चूर-चूर ‘कम्पू’ का ठाठ निराला था॥
स्वतंत्रता का नृत्य ताण्डव होता चलती गोली में।
लाल कानपुर लाल हुआ , सन सत्तावन की होली में॥
‘तिलक भूमि’ से जन्मभूमि के बेटों की हुंकार उठी।
‘कामदत्त’ से कामगार दल की अभेद्य दीवार उठी॥
चौक सराफे जनरलगंज में तूफानों के मेले थे।
सेनानी रघुवरदयाल चेतक पर चढे़ अकेले थे।।
यहीं अमर हजरत मोहानी, साम्यवाद की शान लिये।
यहीं गूंजते श्रीगणेश के बलिदानी जयकारे थे।।
लाहौर और काकोरी के केसों ने केश संवारे थे।
किसे याद है, लोग रहे होंगे कितने इस टोली में॥
लाल कानपुर लाल हुआ , सन सत्तावन की होली में॥
उठा यहीं मजदूर कांड ‘खूनी काटन’ में खेला था।
बेदर्द हाकिमों के द्वारा बैलट में गया ढकेला था॥
‘देवली वंदियों’ के हित में विद्यार्थी वर्ग समूचा था।
‘चर्चिल’ के पुतले के मुख को कोतवाली पर ही कूंचा था॥
कोठियां चमाचम कहीं, कहीं कोठरियों का दिन काला था।
है किसी घर में दीवाली तो किसी के घर दीवाला था।।
शासन विधान बन गया नया, तब शुरू दूसरा दौर हुआ।
ध्वज लाल उड़ा जब मीलों पर, अड़तीस में गहरा और हुआ॥
उठ गयी खाट जल्लादों की, मजदूरों की जरा ठिठोली में।
लाल कानपुर लाल हुआ , सन सत्तावन की होली में॥
क्रांतिवीर राजाराम शर्मा द्वारा सम्पादित ‘कानपुर टाइम्स’ के १५.०४.५७ के अंक में ‘क्रांतिकारी कानपुर’ शीर्षक से(http://kanpur.busi.in/)

Posted By KanpurpatrikaSunday, March 13, 2011